Friday 25 November 2022

मेघ

हे मेघ बस एक बार तुम जमकर बरस जाओ।

तुम्हारी गड़गड़ाहट सुनने के लिए तरसे हैं सब 

ना जाने आखिर दर्शन दोगे तुम कब 

अब तो हमारे ऊपर तुम जल बरसाओ 

बस एक बार तुम जमकर बरस जाओ।


बहुत राह देख ली अब इंद्रधनुषों की 

बुझ नहीं रही प्यास मेरी वर्षों की

हे काले मेघ अब तो हमारे ऊपर तुम तरस खाओ 

बस एक बार तुम जमकर बरस जाओ।


सूख रहे हैं तालाब झड़ने, सूख रहे हैं नदिया नाले 

सूख रहे हैं कुएं सारे, कैसे उनमें हम बाल्टी डाले 

प्यासे हैं हम सभी, प्यासे हैं जानवर बेचारे 

अब तो किसानों के चेहरे पर तुम खुशियां लाओ 

बस एक बार तुम जमकर बरस जाओ। 


मुरझा रही है प्रकृति की सुंदर हरियाली 

उदास बैठी है बेचारी मोर मतवाली 

केवल धरती की बात नहीं है चारों ओर खुशियां फैलाओ 

बस एक बार तुम जमकर बरस जाओ। 


हवा चल रही है, धूल भी उड़ रही है 

तुम्हारे स्वागत में पेड़ों ने भी हैं पत्ते बिछाए 

बूंदे भी धरती को छूने की आस है लगाए 

अब हमें तुम और मत तरसाओ

बस एक बार तुम जमकर बरस जाओ।


- कृष्णा मंडल, नौवीं 'स'

  केंद्रीय विद्यालय कमान अस्पताल, अलीपुर कोलकाता।

Monday 14 November 2022

मेरे बचपन के दिन (कृष्णा मंडल)

बचपन के दिन बहुत रोमांचक और मजेदार होते हैं। अपने बचपन में मैंने कई यादगार काम किए जो बड़े होने पर बस एक याद बनकर रह गए। जब मैं पैदा हुआ तब हर तरफ बस पुराने खयालात वाले व्यक्ति ही मिलते थे। मेरी दो बहने हैं, मेरी बहनों के बाद सबको बस एक लड़के का ही इंतजार था। जब मैं पैदा होने वाला था तब सभी ने मन्नतें रख लीं कि लड़का ही पैदा हो। पता नहीं उन मन्नत के कारण मुझे कितनी बार अपना मुंडन कराना पड़ा है। फिर मैं पैदा हुआ। सभी बहुत खुश हुए। हालांकि अब यह लड़के लड़कियों में भेद की बुरी मानसिकता नहीं है। परंतु उस समय केवल लड़के के पैदा होने पर ही उत्सव मनाया जाता था। मुझे अभी भी मेरी मां सुनाती है कि मेरे पैदा होने पर मेरी नानी ने पंडित जी को सोने का सिक्का दिया था और मेरे पिताजी ने पूरे इलाके में रसगुल्ले बांटे थे। मैं अभी भी सोचता हूं कि मेरी बहनों के पैदा होने पर वैसा उत्सव क्यों नहीं मनाया गया। जब मेरी बहनों ने यह सब देखा होगा तो वह भी दुखी हुई होंगी कि उनके पैदा होने पर इतना सब क्यों नहीं हुआ।

जब मैं 5 साल का हुआ तो पढ़ाई करने के लिए मेरी मां ने मेरा दाखिला कोलकाता के केंद्रीय विद्यालय कमान अस्पताल में करा दिया। तब मेरे पिता हमारे साथ नहीं रहते थे। उनको काम की खातिर हम सब से दूर, असम में रहना पड़ता था। मेरे पिता के असम में होने के कारण मेरी मां को ही हमारी सारी जिम्मेदारी उठानी पड़ती थी। पहली कक्षा तो मैंने केंद्रीय विद्यालय कमांड अस्पताल में ही पूरी की, लेकिन दूसरी कक्षा में जाने के बाद मेरे पिताजी का ट्रांसफर जम्मू हो गया और हम सबको लेकर वे कोलकाता से बहुत दूर जम्मू चले गए।

जैसा अखबारों, टीवी चैनलों और लोगों से सुना था, जम्मू शहर उन सब बातों से विपरीत था। सब कहते थे कि जम्मू कश्मीर में अक्सर आतंकवादी हमले होते रहते हैं, वहां कब हमला हो जाए कुछ पता नहीं है, वहां के लोग अच्छे नहीं हैं, लेकिन जम्मू-कश्मीर जाकर पता चला कि जम्मू जन्नत से कम नहीं है। कुछ महान व्यक्तियों ने कहा है कि कश्मीर जन्नत है। उन्होंने यह बात जरूर सोच समझकर और जम्मू-कश्मीर की सुंदरता को साक्षात अनुभव करके ही कहा होगा। जाहिर है उनकी यह बात जम्मू-कश्मीर में रहने वाले व्यक्तियों को समझ आ गई होगी किंतु जो व्यक्ति उसकी सुंदरता से अपरिचित है उन्हें यह बात कहां समझ में आने वाली। जब हम जम्मू जा रहे थे तब मैंने यह सोचा कि यह कहां जा रहे हैं हम, काश पिताजी का ट्रांसफर वापस कोलकाता हो जाए। किंतु जम्मू जाने के बाद वहां से वापस आने का मन नहीं करता था। वहां रहते-रहते कब 8 साल बीत गए पता ही नहीं चला। पिताजी ने हमें जम्मू कश्मीर में हर जगह अच्छे से घुमाया और वहां 8 साल रहकर ऐसा लगने लगा था कि जम्मू-कश्मीर अपना ही शहर है। वहां रहकर कभी ऐसा लगा ही नहीं कि जम्मू कश्मीर आतंकवादियों का शहर है। वहां 8 साल रहने के बावजूद हमने कभी कोई गोलीबारी या आतंकवादी हमले के बारे में ना तो सुना और ना ही देखा। फिर पता चला कि जम्मू-कश्मीर को लोगों ने यूं ही बदनाम कर रखा है। पता नहीं क्यों पर अभी भी लोगों से जम्मू कश्मीर के बारे में कुछ पूछने पर लोगों के मुंह से आतंकवादी शब्द निकलता ही है। जब हम वहां रहते थे तब किसी भी रिश्तेदार को जैसे ही पता चलता था कि हम जम्मू कश्मीर में है वह तुरंत ही हमें फोन करके यह पूछते थे कि वह जगह सुरक्षित नहीं है ऐसी जगह पर क्या करने गए हो, क्यों जान को हथेली पर लेकर चल रहे हो। हमें यह सुनकर आश्चर्य होता था कि केवल टीवी, अखबार व लोगों की बातों ने ही जम्मू-कश्मीर को उसकी असलियत से कितना भिन्न कर दिया है। जब जम्मू कश्मीर से 370 धारा हटी, तब वहां के लोगों ने जोरों शोरों से उत्सव मनाया। वहां के लोगों को देखकर कभी लगा ही नहीं कि वह दूसरों से अलग है। उनके साथ रहकर, उनके सोच-विचार, रहन-सहन और आम जिंदगी बाकी जगह के लोगों से काफी अच्छी लगी।

8 साल 5 महीने बाद मेरे पिताजी का ट्रांसफर फिर से कोलकाता हो गया। हममें से किसी का भी मन वहां से जाने का नहीं था। वहां के लोगों से दूर जाना हमारे लिए काफी मुश्किल हो गया था। हमें बाकी जगहों से ज्यादा शान्ति, जम्मू और कश्मीर में ही मिलती थी। जम्मू कश्मीर से ज्यादा शांत जगह हमने देखी ही नहीं थी। लेकिन क्या करते, पिताजी की नौकरी का सवाल था, तो वापस कोलकाता जैसे भीड़भाड़ और शोर-शराबे वाली जगह में जाना ही पड़ा। अब कलकत्ता आने के बाद मन करता है कि काश हम फिर से जम्मू वापस जा सके और फिर उस जगह को कभी छोड़कर कहीं ना जाए। कोलकाता आने के बाद हमें याद आती है उस जम्मू-कश्मीर के पहाड़ों वाले हसीन इलाकों की, याद आती है वहां के सीधे-साधे और मन को जीत लेने वाले लोगों की, याद आती है वहां की अनंत शांति की और याद आती है वहां के अत्यंत सुंदर वह मनमोहक वातावरण की।


  • कृष्णा मंडल, नौवीं 'स'

केंद्रीय विद्यालय कमान अस्पताल, अलीपुर कोलकाता 

मेरे बचपन के दिन (मोनिका)

बचपन जीवन का बहुत ही महत्त्वपूर्ण और यादगार समय होता है। बचपन के दिन खुशियों से भरे होते हैं। मैं बचपन में पूरे दिन मौज-मस्ती ही करती थी। हम बचपन में कबड्डी, खो- खो, गिल्ली-डंडा, छुपन- छुपाई आदि अनेकों खेल खेलते थे। और उस वक्त मैं बहुत शरारती हुआ करती थी। मुझे स्कूल जाना अच्छा लगता था, मैं पढ़ाई में भी अच्छी थी। मैं बचपन में हर प्रतियोगिता में भाग लेती थी। और हर प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त करती थी। मेंरे पिता भारतीय सेना में कार्यरत हैं, जिसके कारण हमे हर तीन सालों में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना पड़ता है। इसके चलते मैंने चार स्कूल बदलीं है। पहले राजस्थान, फिर दिल्ली, उसके बाद झांसी और अब कोलकाता। इसके चलते मेरा बचपन आनंद से भरपूर रहा है। अलग-अलग जगह पर अलग- अलग लोग, विभिन्न प्रकार की संस्कृतियां और अनुष्ठान, हर जगह विभिन्न प्रकार के खान-पान और भी कई चीजें देखने को मिलती है। मेरे बहुत से दोस्त भी बने, जैसे- काजल, सयन्तिका, सिद्धी, देबन्विता, निधि, निकिता आदि।

बचपन की एक अन्य घटना मुझे अभी तक याद है। उन दिनों मेरी तीसरी कक्षा की वार्षिक परीक्षा चल रही थी। हिंदी की परीक्षा में हाथी पर निबंध लिखने का प्रश्न आया था। निबंध लिखने के क्रम में मैंने ‘चल-चल मेरे हाथी’ वाली फिल्मी गीत की चार पंक्तियाँ लिख दीं।

इसकी चर्चा पूरे विद्यालय में हुई। शिक्षकगण तथा माता-पिता सभी ने हँसते हुए मेरी प्रशंसा की। परंतु उस समय मेरी समझ में नहीं आया कि मैंने अच्छा किया या बुरा।

बचपन में मुझे मेरे दादाजी और घर के अन्य सदस्यों के द्वारा खूब चॉकलेट और मिठाई दी जाती थी और कोई भी त्योहार आता था तो हमें किसी ना किसी व्यक्ति के जरिए नए कपड़े भी त्योहारों पर पहनने के लिए प्राप्त होते थे। इसके अलावा हमें अक्सर रविवार के दिन घूमने के लिए भी लेकर जाया जाता था क्योंकि रविवार के दिन छुट्टी होती थी।

मेरा स्वभाव बहुत ही दयालु था। मै मेरे दोस्तों, भाइयों-बहनों से अगर कभी लड़ाई-झगड़ा कर भी लेती थी, तो लड़ने के बाद, मुझे बहुत बुरा महसूस होता था। तथा मेरी इस हरकत के कारण मेरे परिवार के लोग भी मुझे डांटते थे। मैं घर के साथ-साथ विद्यालय मे भी सबसे अच्छी तथा समझदार लड़की थी। मैं हर बार मेरे विद्यालय में श्रेष्ठ रहती थी। जिसका प्रमुख कारण मेरा पढ़ाई के प्रति लगाव तथा शिक्षकों द्वारा अच्छा ज्ञान तथा परिवार का अच्छा सहयोग था। इस प्रकार के माहौल होने के कारण मैं बचपन से ही किताबों को ज्यादा पढ़ा करती थी। जिसके कारण मुझे किताब पढ़ना अच्छा लगता था। और आज भी मुझे किताब पढ़ना सबसे ज्यादा अच्छा लगता है। मेरे बचपन की कई यादें हैं। जिसमें कई प्रिय लगती हैं, कई अप्रिय भी थी।

सच में बचपन जीवन का बहुत ही महत्त्वपूर्ण समय होता है। बचपन में इतनी चंचलता और मिठास भरी होती है कि हर कोई फिर से बचपन को जीना चाहता है। बचपन में वह धीरे-धीरे चलना, गिर पड़ना और फिर से उठकर दौड़ लगाना बहुत याद आता है।


मोनिका, नौवीं 'स'

केंद्रीय विद्यालय कमान अस्पताल, अलीपुर कोलकाता।


Friday 4 November 2022

वैष्णवी माने की कविताएं

 कागज़ के चंद टुकड़े


कभी-कभी सोचती हूं

कुछ पाने की क्यों इतनी होड़ है

हर कदम पर एक नया मोड़ है

मानो जिंदगी जिंदगी नहीं

एक अंधी दौड़ है।


थक से गए हैं सभी

खुद से और जिंदगी की लड़ाई से

होश आते ही, आंख खुलते ही

जिंदगी शुरू होती है बस पढ़ाई से।


बचपन से आज तक

क्यों इतनी दौड़-धूप है

क्या जिंदगी का यही एक रूप है?


हर तरफ टेंशन, परेशानी,

सुकून नहीं कहीं

क्यों जमाने में हो रहा है ऐसा

सरकारी मुहर लगे

कागज के चंद टुकड़ों के लिए

जिसे लोग कहते हैं पैसा।

_______________________________



ज़िद 


ज़िद है तो इंसान है

नहीं तो बेजान है

पर अगर ज़िद हो सच्ची

तो देती हर इंसान को पहचान है

ज़िद है तो इंसान है

ज़िद है तो इंसान है।


ज़िद होती है परिंदों की

जिन्हें बिना मंजिल के न आराम है

ज़िद है तो इंसान है

ज़िद है तो इंसान है।


ज़िद होती है किसान की

इस चमकती बिजली में

कड़कती धूप में

सर्दी भी बेहिसाब होती है

पर करता है कड़ी मेहनत

जब तक झलक ना दिख जाए

अपनी कड़ी मेहनत के ईनाम की

ज़िद होती है किसान की।


ज़िद होती है मां की

वह दर्द भी सहती है

पर फिर भी कुछ ना कहती है

सौ दुखों के बाद भी

रहती है वह हंसती-सी

ज़िद होती है मां की।

_______________________________



कोशिश


तू जिंदगी को जी

उसे समझने की 

कोशिश न कर।

सुंदर सपनों के ताने-बाने बुन

उसमें उलझने की 

कोशिश न कर।


चलते वक्त के साथ तू भी चल

उसमें सिमटने की 

कोशिश न कर।


अपने हाथों को फैला 

खुलकर सांस ले

अंदर ही अंदर घुटने की 

कोशिश न कर।


मन में चल रहे 

युद्ध को विराम दे

ख्वामखाह खुद से लड़ने की 

कोशिश न कर।


कुछ बातें 

वक्त पर छोड़ दे

सब कुछ खुद सुलझाने की 

कोशिश न कर।


जो मिल गया 

उसी में खुश रह

जो सुकून छीन ले उसे पाने की 

कोशिश न कर।

रास्ते की सुंदरता को पहचान

मंजिल पर जल्दी पहुंचने की 

कोशिश न कर।


  • वैष्णवी माने, नौवीं-स

केंद्रीय विद्यालय कमान अस्पताल, अलीपुर कोलकाता।


Sunday 23 October 2022

मां

तू ही है सबसे प्यारी 

तू ही है सबकी दुलारी, 

करती हूं मैं तुझसे प्यार 

मुझमें है तेरे संस्कार। 

तू ही है मेरी आस्था 

तेरे बिना जग लगता न कुछ खास-सा।


मैंने घूमा है संसार 

पर मिला ना मुझको तुझसा प्यार।

तू है मेरे लिए कुछ खास 

मेरे जीवन की है आस।

तू सुंदर सुशील खास है 

तुझमें बसी मेरी सांस है।

जीवन का हर दुख कम हो जाता

तेरी गोद में सिर रखकर,

सारा धाम है मिल जाता 

मां तेरे चरणों को छूकर।


आज की इस दुनिया में लोग 

देते हैं अपनों को धोखा, 

मां दुनिया में तेरे जैसा 

नहीं है कोई और अनोखा।

तुझसे ही तो मेरा जीवन

आज बना धनवान है, 

ईश्वर ने जो मुझे दिया है

तू पावन वरदान है।


- नीलम सिंह (११वीं विज्ञान)

  केंद्रीय विद्यालय कमान अस्पताल, अलीपुर कोलकाता।




Friday 10 September 2021

अगर तुम

अगर तुम होते 

तो तूफ़ान आता ज़रूर, पर कुछ बर्बाद न होता

अगर तुम आते 

तो शायद कभी न आती बरसातों की वह काली रात

अगर तुम होते साथ 

तो फूल खिल जाते, तारे चमक उठते, मैं चहकती

अगर तुम आ जाते 

तो शायद न होता डर, कुछ पाने या खोने का।


क्योंकि तुम नहीं होते 

इसीलिए तूफ़ानों को हरा देती हूं मैं 

क्योंकि तुम नहीं आते 

इसीलिए खून के छाप पड़ते हैं उन बर्फों पर 

मगर उनकी नदियां नहीं बहतीं गंगोत्री से 

क्योंकि तुम नहीं होते मेरे साथ 

इसीलिए मैं अकेली हूं, डरती हूं, पर जानती हूं 

कि कांप नहीं रहा है पूरा भारत 

क्योंकि तुम नहीं आ पाते 

इसीलिए छूट जाते हैं तुम्हारे साथ मेरे लम्हें 

पर कम नहीं होते लोगों के पास वीरता के किस्से।


आसान नहीं होता 

तुम जैसों का साथ निभाना 

आसान नहीं होता 

मुझसे ज्यादा, तुम्हें किसी और से प्यार करने देना 

आसान नहीं होता 

आंखों को काबू कर हाथों को मज़बूत बनाना 

आसान नहीं होता 

देश का बेटा, देश की बेटी बनना।


नमन इन्हें 

नमन उन्हें

जो दे रहे इनका साथ 

नमन उन्हें भी 

जो देश के भीतर रहकर, कर रहे देश को प्यार 

नमन उन सबको 

जो देश में हैं या नहीं हैं लेकिन देश के हैं- 

सिर्फ उस देश का नहीं जिन्हें हमने सरहदों से 

भिन्न कर रखा है, बल्कि 

नमन हर देश को, हर सच्चे मानव, इंसान को।



  • ओमेशा भट्टाचार्जी (ग्यारहवीं मानविकी)

केंद्रीय विद्यालय काशीपुर कोलकाता


Saturday 21 August 2021

संपादकीय

 


तुम्हारे साथ रहकर 

अक्सर मुझे लगा है 

कि हम असमर्थताओं से नहीं 

संभावनाओं से घिरे हैं 

हर दीवार में द्वार बन सकता है 

और हर द्वार से पूरा का पूरा पहाड़ गुज़र सकता है।


कविवर सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की उपरोक्त पंक्तियां मुझे बहुत प्रिय हैं। इन पंक्तियों की सार्थकता मुझे उस समय ज्यादा महसूस होती है, जब एक शिक्षक के रूप में मैं अपने विद्यार्थियों के बीच होता हूं। सचमुच उनके साथ रहकर यह अनुभव होता है कि हमारे विद्यार्थियों में कितनी संभावनाएं भरी हुई हैं। वे जिजीविषा से भरे हुए हैं, उनमें वर्तमान और भविष्य के सुनहले सपने नए-नए आकार लेते रहते हैं। असमर्थता का जहां कोई नामोनिशान नहीं होता है। वे पूरी तरह से उत्साह, साहस और ऊर्जा से भरे हुए दिखाई देते हैं। उनके विचार और चिंतन की धरातल उर्वरा होती है, कल्पना की उनमें ऊंची उड़ान होती है। उनकी भविष्योन्मुखी आंखें दुनिया को एक नई नज़र से देखने को आतुर रहती हैं।


मुझे उनके सपनों और सामर्थ्य पर भरोसा है। उन्हें देखकर मैं बेहतर भविष्य के लिए आशान्वित होता हूं। उनकी इसी रचनात्मक क्षमता को एक मंच प्रदान करने के उद्देश्य से इस ब्लॉग पत्रिका की शुरुआत की जा रही है। 




अतः मैं अपने सभी विद्यार्थियों को मौलिक व रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए आमंत्रित करता हूं। आप कविता, कहानी, एकांकी, यात्रा-वर्णन, डायरी, पत्र, संस्मरण आदि जिस किसी साहित्यिक विधा में अपने विचारों, भावनाओं और अनुभूतियों की अभिव्यक्ति कर सकें, आपकी रचनाओं का पत्रिका में स्वागत है। आप अपनी मौलिक रचनाएं rachnasheelpatrika@gmail.com पर भेज सकते हैं। रचनाएं उपयुक्त तथा स्व-रचित होने पर पत्रिका में प्रकाशित की जाएगी।


रचनात्मकता हमारे जीवित होने का प्रमाण है। हमें जरूरत है अपने रचनात्मक सामर्थ्य को पहचानने की तथा एक नई शुरुआत करने की। मैं यह ब्लॉग पत्रिका सभी विद्यार्थियों, शिक्षकों तथा अभिभावकों को समर्पित करते हुए एक बार फिर से कविवर सर्वेश्वर की पंक्तियों के साथ अपनी लेखनी को विराम देता हूं-


सामर्थ्य केवल इच्छा का दूसरा नाम है 

जीवन और मृत्यु के बीच जो भूमि है 

वह नियति की नहीं मेरी है।

मेघ

हे मेघ बस एक बार तुम जमकर बरस जाओ। तुम्हारी गड़गड़ाहट सुनने के लिए तरसे हैं सब  ना जाने आखिर दर्शन दोगे तुम कब  अब तो हमारे ऊपर तुम जल बरसाओ...